लेख:जातीय गणना के बाद की आशंकाए

बिहार में नीतिश सरकार द्वारा जातिगत जनगणना शुरू कर देने के बाद इसके फायदे और नुकसान पर चर्चा शुरू हो गई है।यूँ देखा जाये तो भारत की राजनीत में जातिगत समीकरण हमेशा भारी रहे है। इसको लेकर तमाम सवाल उठने लाजिमी है। जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जाति का सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्व है लेकिन जातीय गणना के खतरे भी हैं।इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता।

लेखक-प्रेम शर्मा

देश की दो बड़ी पार्टी भाजपा और कांग्रेस जातिगत जनगणना के पक्ष में नही है। बिहार में नीतिश सरकार द्वारा जातिगत जनगणना शुरू कर देने के बाद इसके फायदे और नुकसान पर चर्चा शुरू हो गई है। वैसे भी भारत की राजनीत में जातिगत समीकरण हमेशा भारी रहे है। अब ऐसे में बिहार में जातीय गणना शुरू होने के बाद तमाम सवाल उठने लाजिमी है। जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जाति का सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्व है लेकिन जातीय गणना के खतरे भी हैं। इसको अनदेखा नहीं किया जा सकता कि देश में जातियों को गोलबंद कर वोट बैंक की राजनीति होती है।बिहार में जातीय गणना का काम शुरू होना इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि वह इस तरह की गणना कराने वाला पहला राज्य है। बिहार के साथ अन्य राज्य जातिगत जनगणना की मांग कर रहे थे, लेकिन केंद्र सरकार किन्हीं कारणों से पुरानी परंपरा का ही पालन करने के लिए तैयार हुई। वह शायद इसलिए हिचक गई, क्योंकि इससे जातिवाद आधारित राजनीति को बल मिलने के साथ आरक्षण की नित नई मांगें सामने आने का अंदेशा था। सच जो भी हो, यह अच्छा है कि बिहार सरकार जातीय गणना के साथ लोगों की आर्थिक स्थिति का भी आकलन करने जा रही है। लोगों की आर्थिक स्थिति जानना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उसे जानकर ही क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक उत्थान की कारगर योजनाएं शुरू की जा सकती हैं।आर्थिक स्थिति का आकलन निर्धनता निवारण की योजनाओं के क्रियान्वयन में भी सहायक होता है, लेकिन यही बात जातीय गणना के बारे में नहीं कही जा सकती। सैद्धांतिक रूप से तो देश के सामने यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि किस जाति के कितने लोग हैं, क्योंकि सामाजिक विकास की कई योजनाएं इसी आधार पर संचालित होती हैं कि कहां, किस जाति की कितनी संख्या है? जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जाति का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भी महत्व है, लेकिन जातीय गणना के खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि विभिन्न राज्यों में जातियों का आकलन करने के नाम पर जातिवाद की राजनीति को नए सिरे से धार दी जा सकती है। जातीय जनगणना के बाद आने वाले परिणामों से राजनीति के साथ नौकरी सहित कई क्षेत्रों में आरक्षण की मांग और जातिगत वर्चस्व प्रबल होगा। यही नही सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1952 में स्पष्ट तौर पर देश का गृहमंत्री रहते हुए संसद में कहा था कि अगर हम जातीय जनगणना करते हैं तो देश का सामाजिक तानाबाना टूट जाएगा।साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी। साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया।साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया। लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं।साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग यानि मंडल आयोग की एक सिफ़ारिश को लागू किया था।ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया। जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है। मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि, मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था।इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आँकती आई है। इसी के आधार पर राजनैतिक दल विभिन्न चुनावों में जातिगत संख्या बल को देखकर उस क्षेत्र से उसी बिरादरी के व्यक्ति को अपना प्रत्याशी बनाने पर जोर देते है। लेकिन केंद्र सरकार जाति के आधार पर कई नीतियाँ तैयार करती है। ताज़ा उदाहरण नीट परीक्षा का ही है, जिसके ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की बात मोदी सरकार ने कही है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में दिए जवाब में कहा था कि फ़िलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है।आज भले ही बीजेपी संसद में इस तरह के जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन 10 साल पहले जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता ख़ुद इसकी माँग करते थे।बीजेपी के नेता, गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएँगे। हम उन पर अन्याय करेंगे।इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक़्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायज़ा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित किया जाएगा। लेकिन अब सरकार अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई है। दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की बात करें, तो 2011 में एसईसीसी यानी सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया था। चार हज़ार करोड़ से ज़्यादा रुपए ख़र्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई।साल 2016 में जाति को छोड़ कर एसईसीसी के सभी आँकड़े प्रकाशित हुए। लेकिन जातिगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए. जाति का डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आँकड़ों का क्या हुआ। इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है।माना जाता है कि एसईसीसी 2011 में जाति आधारित डेटा जुटाने का फ़ैसला तब की यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के दबाव में ही लिया था। वैसे देखा जाए तो देश की ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ जातिगत जनगणना के समर्थन में है, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है। इसका समर्थन करने से सामाजिक न्याय का उनका जो प्लेटफ़ॉर्म है, उस पर पार्टियों को मज़बूती दिखती है। लेकिन राष्ट्रीय पार्टियाँ सत्ता में रहने पर कुछ और विपक्ष में रहने पर कुछ और ही कहती हैं। विपक्ष में आने के बाद कांग्रेस ने भी 2018 में जाति आधारित डेटा प्रकाशित करने के लिए आवाज़ उठाई थी. लेकिन उन्हें सफ़लता नहीं मिली।इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अपने देश में जातियों को गोलबंद करके किस तरह वोट बैंक की राजनीति की जाती है। देश में कई दल ऐसे हैं, जो जाति विशेष की राजनीति करते हैं। इन दलों ने विभिन्न जातीय समूहों को गोलबंद करके तरह-तरह के समीकरण बना रखे हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दल ऐसे समीकरण बनाने में माहिर हैं। भले ही जातियों के आधार पर राजनीति करने वाले दल सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करते हों, लेकिन सच यह है कि वे जातिगत आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण करते हैं और चुनावों के समय उसका लाभ उठाते हैं।इस तरह की राजनीति न केवल समाज को बांटने का काम करती है, बल्कि कई बार विभिन्न जातियों के बीच वैमनस्य भी पैदा करती है। कहना कठिन है कि बिहार में जो जातीय गणना होने जा रही है, उसके क्या परिणाम और प्रभाव होंगे, लेकिन इस तथ्य को ओझल नहीं किया जा सकता कि बिहार जातिवादी राजनीति के लिए कुख्यात रहा है। एक समय यहां जाति आधारित हथियारबंद संगठन खड़े किए गए, जिन्हें जाति विशेष की निजी सेनाओं के रूप में जाना गया। स्पष्ट है कि जातीय गणना के आंकड़ों का इस्तेमाल जातिवादी राजनीति के लिए नहीं होने दिया जाना चाहिए।अब सवाल बिहार में शुरू जातिगत जनगणना का है ऐसे में जातिगत जनगणना जो आँकड़े सामने आएगें वह राजनीतिक स्तर पर भारी फेरबदल करेंगें। मान लीजिए ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट कर 40 फ़ीसदी रह जाती है, तो हो सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के ओबीसी नेता एकजुट हो कर कहें कि ये आँकड़े सही नहीं है। और मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़ कर 60 हो गया, तो कहा जा सकता है कि और आरक्षण चाहिए।जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है. जनगणना में कोई भी चीज़ जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं। इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है। एक तरह से देखें तो जनगणना से ही जातिगत राजनीति की शुरुआत होती है। उसके बाद ही लोग जाति से ख़ुद को जोड़ कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियाँ और एसोसिएशन बनने लगे। अगर संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे. ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियाँ हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियाँ आकर माँगेंगी कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फ़ीसदी आरक्षण दे दो, तो बाक़ियों का क्या होगा? ये जातिगत जनगणना का नकारात्मक पहलू है।

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